रेत का तकिया
घर में भाई आया है,इस बात का उत्सव पूरा कुटुंब मना रहा था.
सुबह उठने के बाद किसी ने मुझसे नहीं पूछा कि मैंने दूध भी पिया है कि नहीं.
तब मैं इतनी छोटी थी कि ज्यादा याद नहीं है.हाँ,इतना याद है कि कुटम्ब के सारे लोग बहुत खुश थे.दादी खुश होकर गुड कि थाली हर आने वाले के आगे कर रही थी.रिश्तेदारी कि औरते आ आकर उस कमरे में जा रही थी जिसमें माँ सो रही थी.मुझे भूख लग रही थी.जब माँ के कमरे में गई तो माँ सो रही थी.उसके पास एक छोटा सा बच्चा अपनी नन्ही मुठ्ठियाँ और आँखे बंद किये लेटा था जिसे सब लोग मेरा भाई कहरहे थे.तभी बुआ ने मुझे झिड़की दी और मेरा हाथ पकड़ते हुए मुझे कमरे से बाहर निकल दिया.
बाहर चौक में चाची रोटियां बना रही थी.
'चाची,भूख लगी है.'
'चुपकर,भुख्खड़ कहीं की..! अभी नहीं खायेगी तो मर थोड़े जायेगी. पहले मेहमानों को परोसने दे.'
चार साल के बचपन के लिए यह सदमा था.मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही थी.
तभी मैंने आँगन में बापू को देखा और दौड़ के उनके पांव से लिपट गई.बापू मेरे सर पर हाथ फेरते हुए लोगो से बाते करने लगे.उनको खुश देख कर मेरी भूख जैसे मिट सी गई थी.
किसी ने आवाज दी तो बापू मेरा हाथ छुडा कर तेज कदमो से चल दिए.मैं रोने लगी...पर किसी ने मुझे चुप नहीं कराया.कोई मुझ पर ध्यान नहीं दे रहा था.रोते रोते गला सूखने लगा तो आँगन में रखी मटकी पर रखे लोटे से मुंह लगा कर गट गट पानी पीने लगी.अचानक दादी ने जोर से एक चांटा मेरे गाल पर रसीद कर दिया-
'...इतनी बड़ी हो गई है और अभी भी पानी पीने का शउर नहीं है, ...माँ जैसी डीकरी और घडे सी ठीकरी...कल दूसरो के घर जायेगी तो नाक नहीं कटाएगी.'
दादी गुस्से से चिल्ला रही थी.
...और मेरी सिसकियाँ इस बार भी किसी को सुनाई नहीं दी.
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मुन्ना दो साल का हो गया था.सबको वह गोल मटोल और प्यारा लगता था.
पर मुझे वह हमेशा भारी लगता था क्योंकि जब माँ कम करती तो मैं ही उसे गोद में उठाये फिरती थी.
एक दिन ड्योढी पार करते समय मैं अपना संतुलन खो बैठी और मैं और मुन्ना नीचे गिर गए.मुन्ना के सर पे गूमड़ निकल आया,वह जोर से रोने लगा.माँ भाग कर आई और मेरी वह पिटाई की कि मैं समझ नहीं पाई कि मुझे गिरने से ज्यादा चोट लगी थी कि पिटाई से.रोना अब नहीं आता था क्योंकि अब ये रोज कि बात थी.उस रात,रातभर हाथ में तीखा दर्द रहा था.सुबह तक हाथ बुरी तरह से सूज गया था.फिर सुबह में ही मुन्ना को खिला न पाने के कारण दादी के चांटो का स्वाद चखा-
'करम जली, नाटक करती है...'
मैं फिर नहीं रोई.
तीसरे दिन बापू को पता चलने पर मुझे अस्पताल ले गए.डॉक्टर ने बताया कि हाथ की हड्डी टूट गई है.
फिर मैंने कई दिन हाथ पर पट्टी बांधे बड़े आराम से गुजारे.
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मुन्ना अब स्कूल जाने लगा था.उसका ध्यान रखने के लिए मुझे भी स्कूल में भरती कराया गया था.
माँ का पेट अब वैसा ही बड़ा दिखाई दे रहा था जैसा कि वह मुन्ना के आने से पहले दिखता था.
उस दिन मैं और मुन्ना खेल रहे थे.
'पता है मुन्नी,हमारे भैया आने वाला है.'
'किसने कहा?'
'बुआ कहती है.'
दादी, माँ पर बहुत प्यार लुटा रही थी.
बापू हमेशा ढेर सारे फल लाते.उन्हें काट कर प्लेट में सजाया जाता और कभी बुआ और कभी दादी बड़े आग्रह से माँ को खिलाती.कई दिनों से घर में शान्ति और ख़ुशी थी.
उस रात जब मैं और मुन्ना सो रहे थे.मेरी गहरी नींद घर में बढ़ी हुई चहलकदमियो से खुल गई.दादी और चाची माँ के कमरे में थे.बुआ और बापू बाहर खड़े थे.सब के सब चिंतित नजर आ रहे थे.मेरी आँखे भारी होने लगी थी.और फिर मुझे नींद आ गई.
सुबह मातम का माहौल था.
'एक को पहले ही रख कर बैठी है,..दूसरी से क्या घर का दिवाला निकलावाएगी?करम ठोक जब से घर में आई है,तब से बर्बादी शुरू हो गई है.मेरा बेटा कमा कमा कर कितने खड्डे भरेगा?' दादी तीखी आवाज में चिल्ला रही थी.
'बुआ कि डोली के भाव पता नहीं और दो दो भतीजियों को तैयार कर रही है.'चाची ने ताना मारा.
'सोमवती ग्यारस को जन्मी है बहूजी,.. मैं कैसे...?' माँ सिसकते हुए बोल रही थी.
बापू कुछ बोल नहीं रहे थे परन्तु उनका चेहरा गुस्से से भरा हुआ था.
'भैया आप तो दो दो लड़किया पालो ...!बोझ तो मैं हूँ, जो कोई भी कुआँ भर लूंगी... भाभी थोड़े ही मानने वाली है..'बुआ कह रही थी.
अचानक बम्बई वाले बड़े भैया का फ़ोन आया.उनके दो लड़के थे.
बता रहे थे कि इस लड़की को रवाना मत कर देना...सोमवती ग्यारस को जन्मी है..मैं गोद ले लूँगा..
बापू हाँ हूँ करते रहे.
उन्हें सुझाव अच्छा नहीं लगा.
मैं कमरे में उस बिस्तर के पास खड़ी थी जिस पर माँ लेटी थी.बापू कमरे के दरवाजे पर आये.माँ ने अपने पास पड़ी नन्ही जान को उन्हें दिखाना चाहा..शायद अपने सृजन कि मासूमियत देख उन्हें दया आ जाये.बापू ने गुस्साई आँखों से माँ को देखा और...
'धडाम!....'दरवाजा जोर से पटक कर चल दिए.
माँ अपने कमरे में सुई से थैली नुमा कुछ सिलाई कर रही थी.उसकी आँखों में आंसुओं की अविरल धारा बह रही थी…उसके मुंह से रुक रुक कर सिसकियाँ निकल रही थी जो कभी कभी हिचकी में बदल जाती.
'माँ,क्या कर रही हो ?'
'तकिया बना रही हूँ.'
'बहन के लिए ?'
'हाँ.."
"तुम तो थैली बना रही हो"
"इसमें रेत भर लूंगी तो तकिया बन जायेगा"
माँ का गला रूंध रहा था.
"रेत का तकिया किसलिए?"
"इसे सुलाने के लिए.."माँ ने गोद में पड़ी एक दिन की बहन की और इशारा किया.
"अब तू जा.."
मैं कमरे से बाहर आ गई.मुझे सब कुछ अजीब सा लग रहा था.
माँ कमरे से निकल कर घर के पिछवाडे गई और उस थैली में रेत भर कर वापस कमरे में चली गई.माँ जाने किन ख्यालो में थी की उसे अपने पीछे मेरे कमरे में आने का कोई अहसास नहीं हुआ.उसने सुई की मदद से टाँके लगा कर रेत से भरी थैली को सिल दिया.अब वह थैली एक भारी सा तकिया नजर आ रही थी.
माँ ने नन्ही सी बच्ची को गोद में लिया और बेतहाशा चूमने लगी.उसकी आँखों से आंसुओ की धार बह रही थी.फिर उसे पलंग पर लिटा कर लोरी सुनाने लगी.बच्ची सो गई.
माँ ने रेत का तकिया उठाया और उसकी छाती पर रख दिया.उसकी नन्ही आँखे खुल गई,वह रोना चाह रही थी पर सांस नहीं आने से आवाज नहीं निकल पा रही थी.उसका चेहरा पहले लाल और फिर नीला पड़ने लगा.
...और फिर उसकी चेष्टाएं शांत हो गई.
बापू ने कपडे में लिपटी उस गुडिया को अपनी गोद में उठाया जिसे उन्होंने उस समय देखना भी न चाहा था जब वह जिन्दा थी.
बापू गाँव के दक्षिन में उस कब्रिस्तान की ओर चल दिए जहाँ दुधमुंहे बच्चों की लाशो को दफनाया जाता था.
जिसके पास खेलने से सब बच्चे डरते थे.
17 टिप्पणियां:
यह सचमुच "रेत का तकिया" है. जारी रहें.
बहुत सुंदर…..आपके इस सुंदर से चिटठे के साथ आपका ब्लाग जगत में स्वागत है…..आशा है , आप अपनी प्रतिभा से हिन्दी चिटठा जगत को समृद्ध करने और हिन्दी पाठको को ज्ञान बांटने के साथ साथ खुद भी सफलता प्राप्त करेंगे …..हमारी शुभकामनाएं आपके साथ हैं।
chain se soyi nadi pehlu-e-sagar mein youn,
apna pani de use apni kashti saunpkar..
yaad tu aati hai "MAA" bhookh se rota hoon main.
mere piche leke roti phir se aaja daudkar.
आपका हिंदी ब्लॉग जगत में स्वागत है .आपका लेखन सदैव गतिमान रहे ...........मेरी हार्दिक शुभकामनाएं......amitjain
कहानी पढ़ कर मन ख़राब सा हो गया। आज भी वैसे सुना तो है कि लड़कियाँ पैदा होने पर कुछ ऐसा सलूक होता है, मगर बहुत अजीब सा लगता है ये सब सोच कर। क्या सचमुच ऐसा होता होगा कि सिर्फ़ कल्पना है?
अच्छे लेखन हेतु बधाई | ऐसी कुत्सित परम्पराओं में इसके लिए जिम्मेदार व् सहयोगी व्यक्तियों के सीने पर आलू के बोरे में रेत भर कर रखवा देनी चाहिए ताकि इनका अस्तित्व ही दफ़न हो जाये|
बेहद संवेदनशील विषय चुना है आपने और हाँ इसी परंपरा के चलते जैसलमेर के किसी गाँव में सौ साल के इतिहास में पहली बार बारात आई जिसने मिडिया का ध्यान अपनी और खींच लिया था .
बिलकुल ठीक लिखा है............मन भर आया इसे पढ़ कर
एक से ज्यादा बार पढ़ चुका हूँ इस कहानी को.हर बार मन एक ही तरह से प्रतिक्रिया व्यक्त करता है-एक अफ़सोस की.
जानता हूँ कि कहानी सिर्फ कहानी नहीं है बल्कि एक घटित हुआ या होता सच है राजस्थान के कुछ हिस्सों के समाज का. आपने इसे बहुत मार्मिक तरीके से उघाडा है.हमारे प्रिय कहानीकार ओम प्रकाश भाटिया की एक कहानी पढ़ी थी-चार आँखों वाली. उसमे ओमजी ने इस सच के साथ आज के आम हो चुके क्रूर सच जिसमे कन्या भ्रूण का प्रयोगशालाओं में पता लगवा कर उसकी हत्या कर दी जाती है, को बराबरी में सामने रखा था.यानी तरीके बदल गए है पर .....वैसे कुछ ज्यादा नहीं बदला है.
इस कहानी को पढ़ कर एक आर्त पुकार बहुत अरसे तक पीछा करती है.
क्या कहूं.................. कुछ कहने का मन नहीं हो रहा......................
लगता है शब्दों पर रेत का तकिया रख दिया है किसी ने ....................
बहुत अच्छा लिखते हैं आप ...न जाने में कहीं खो सा गया
मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति
well carved out ,heart touching and moving story..... unfortunately this is the bitter reality in the garb of a story....an irony that the one(woman) who create the humanity are despised by that very creation....
great use of words! i wonder how u do all that? wonderful ....kudos 2 u brother
अजीब सा मन हो आया सब पढ़ कर...
देर रात गये ऐसे ही भटकता आपके ब्लौग पर चला आया...अच्छा लिखते हैं आप
बाप रे...! क्या लिख दिया आपने...!!! मन काँप गया..! झूठ तो नही है, मगर झूठ ही मानने को मन करता है। ये बात तब की है जब पैदा करने से पहले नही मार सकते थे। अब विज्ञान ने दूसरी सुविधाएं दे दी हैं। रेत का तकिया नही। रेत का अनदेखा समंदर....! जहाँ कितनी ही कलियाँ बही जा रही हैं..!
ek sunder kahani hai. well done.
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