सोमवार, 5 मार्च 2018

रफ कॉपी


1.
धीरेन ने बाबूजी की अलमारी खोली और सारे कागजात,रजिस्ट्रियां,जीवन बीमा की रसीदें, लोन्स के पेपर्स,बैंक की पासबुकें आदि बाहर निकाले।

बाबूजी ने सारी जिम्मेदारियों को बहुत सलीके से निभाया था।और जीवन के बाद भी कोई काम अधूरा नहीं छोड़ा था।हाउस लोन, पर्सनल लोन,बिजनेस लोन, मॉर्गेज लोन यहां तक कि सी सी लिमिट का भी बीमा करा रखा था।दिनकर और उसको एक पैसा भी चुकाना नहीं था।सारी प्रोपर्टी और बिजनेस की लोन्स की आजतक की किश्तें बाबूजी ने चुका दी थी और बाकी बची उनके इंश्योरेंस से भरदी जाएगी।

सभी कागजातों के नीचे पॉलीथिन के बैग में एक कॉपी नजर आयी।उसने उसको बाहर निकाला।यह एक बड़ी साइज की नोटबुक थी।उसके ऊपर चेतक घोड़े का चित्र बना हुआ था।और लिखा हुआ था-
'रफ कॉपी।'
नीचे बाबूजी का नाम लिखा हुआ था-
पन्नालाल सहाय'प्रभुदास',बी बी ए सेकंड ईयर।
प्रभुदास उनका तख़ल्लुस था।उनकी एक दो कविताएँ प्रभुदास के नाम से समाज की पत्रिकाओं में छपी भी थीं।

उसने पहला पेज खोला।उसपर एक परिवार का चित्र था।यह उसका परिवार नहीं था।यह उसके बाबूजी का परिवार था।उसके बाबूजी बहुत अच्छे चित्रकार भी थे।यह उसको बाबूजी के चौथे की बैठक में आये उनके क्लासमेट इन्दर अंकल से पता चली थी।
इस तस्वीर को उन्होनें बुआ की शादी के एक ग्रुप फ़ोटो से पेंटिंग के रूप में बनाया था।बीच में बुआ और फूफाजी शादी के जोड़े में कुर्सी पर बैठे थे।पास में दोनों ओर दोनों दादीजी,फिर दोनों ताई और माँ,माँ की गोद में दिनकर भैया थे।जमीन पर दरी पर बाबूजी के कजन तीनो बुआ और दोनों चाचा बैठे थे जिनकी उस समय शादी नहीं हुई थी।
बड़े ताऊजी के लक्ष्मण भैया और राम भैया और छोटे ताऊजी के गजेंद्र भैया और मोहन भैया बुआ के पीछे खड़े थे।और सबसे पीछे दोनों दादाजी, ताऊजी खड़े थे।
साइड में चेयर पर बाबूजी बैठे थे।उनकी गोद मे छोटा सा धीरेन बैठा।बाबूजी ने उसे हाथों में समेट रखा था।और धीरेन अपनी नन्ही उंगलियों से बाबूजी की हथेलियों को सहला रहा था।
ये बड़ा और संयुक्त परिवार बाबूजी का सब कुछ था।और जीवन के अंतिम समय तक वो इसके मोह से बाहर नहीं आ सके।
बचपन बड़ा भरमाने वाला होता है।बचपन के जिम्मेदारी से मुक्त जीवन में आप जिस दुनियाँ और जिन लोगों से प्यार कर बैठते है उसका प्रभाव ताउम्र  एक गहरे नशे की तरह आपके लिए केवल उसी बचपन की दुनियां को सच के रूप में स्थापित कर देता है।और फिर उम्र के अंतिम पड़ाव तक आप कब की मर चुकी उसी बचपन की दुनियां को फिर से जीवित करने की असफल कोशिश करते रहते है।
धीरेन ने रफ कॉपी के कुछ पन्ने पलटे ।उसमे बी बी ए के क्लास रूम के लेक्चर्स के नोट्स थे।सभी सब्जेक्ट्स के।बेतरतीब और पेज पर गोले और बॉक्सेस बनाए हुए।अब कुछ भी मतलब नही था उनका।
फिर ये रफ कॉपी बाबूजी ने इतनी संभाल के क्यों रखी?
धीरेन सोचने लगा।
शायद परिवार की उनकी खुद की बनाई पेंटिंग की वज़ह से।
फिर उसे देखा कि उस रफ कॉपी में ऊपर और नीचे और हर पेज के छूटे हुए हाशिये पर कुछ कोटेशन लिखे हुए थे।तारीख के साथ।
शायद बाबूजी ने अपनी पेंटिंग की वजह से वह रफ कॉपी संभाल के रखी थी और बाद में हर पेज पर ऊपर,नीचे और हाशिये पर छोटे छोटे कोटेशन के रूप में अपनी फिलॉसफी या संक्षिप्त जीवनी लिखते थे।
धीरेन ड्राइंग रूम के सोफे पर बैठ गया और उसे पढ़ने लगा।
--------------------
2.
'यह सोचना महत्वपूर्ण है कि किस के लिए बनना है बनिस्पत इसके कि क्या बनना है।' -23.11.84
बाबूजी के लिए संयुक्त परिवार सबकुछ था।कई मौकों पर बाबूजी असम्भव सी शीघ्रता और ऊर्जा से परिवार के काम करते थे। धीरेन को याद था कि वे कभी भी खुद के बच्चों के कपड़ो और खिलौनों की परवाह न करते हुए भी दूसरे बच्चों केलिए एक एक चीज ले आते थे।उस समय दोनों दादाजी की शहर की दुकान के आगे सौ फीट चौड़ा मार्ग निकला।दुकान का कुछ हिस्सा भी उसमे चला गया।पर दुकान का बड़ा गोदाम अब फ्रंट में आ गया था।और वास्तु के हिसाब से भी अब वह सिंह मुखी हो गयी थी।बाहर से चालीस फ़ीट चौड़ी और भीतर से तीस फ़ीट।
सहाय का जनरल स्टोर शहर की नामी दुकान बन गयी थी।छोटे दादाजी और दोनों ताऊजी उस पर बैठते थे।दिन का गल्ला हज़ारों में था।और महीने की उधारी का किराना अलग था ।
सारा हिसाब किताब दोनों ताऊजी के पास था।
मां रात को अकेले में बाबूजी को सुनाती थी।बडी भाभी के सेट लाया है।जेठजी के बच्चों के नए कपड़े लाए गए हैं।
एक दो दिन में ही उसका स्रोत पीहर का कोई शुभ अवसर बन जाता।
बी बी ए की पढ़ाई के अनुभव से बाबूजी छोटे दादाजी और भाइयों को बाजार के महंगे ब्याज पर पैसा लेने से मना करते रहते थे।पर उस वक्त बाबूजी को कोई पूछता ही नहीं था।
और बाबूजी जी जान से माल गोदाम में स्टॉक को संभालते,कभी मुनीमों की चोरियां पकड़ते तो कभी होलसेलर से सौदेबाजी कर के भाव तोड़ने में लगे रहते थे।
उनका काम धंधे के लिए लाभदायक तो था पर किसी को दिखता नहीं था।
फिर बुआ की शादी और बड़की बुआ की शादी में बहुत खर्चा हुआ।ऊंचे ब्याज के कर्ज से आर्थिक स्थितियां बुरी होने लगी थी।ऊपर से ताऊजी ने दाल का स्टॉक कर लिया था जिसके लिए बाबूजी ने मना किया था।पर बाबूजी की किसी ने नहीं सुनी थी।फिर एकदम दालों में मंदी आ गयी और पूरा परिवार आर्थिक संकट में आ गया।
लोग तकाजे करने लगे।दादाजी ने  खेत बेच कर कुछ रकम चुकाई थी।
'पिताजी,आप खेत भले बेच दें पर बाजार का ब्याज हमें खा रहा है।इससे कुछ नहीं होगा रकम फिर बढ़ जाएगी।'बाबूजी ने कहा।
'तो छोटे का भी खेत बेच कर पूरी रकम चुका लें।'दादाजी ने छोटे दादाजी से पूछा।
छोटे दादाजी यह कहकर नट गए कि दालों का स्टॉक आपके बेटे ने किया था।वे अपनी ज़मीन क्यों बेचें।
सही कहा है -टोटा(नुकसान)लड़ता है और टोटा लड़वाता है।
बाबूजी उस दोपहर को सरकारी बैंक के मैनेजर को घर ले आये।बची रकम का लोन पास करवाया।सी सी लिमिट भी बनवाई।जो पैसा आया वह बकायादारों को पहुंचाया गया।और जो खेत बिका वह बाबूजी के हिस्से में आना था।पर बाबूजी का सर्व प्रिय परिवार आर्थिक संकट से बाहर आ गया था।
बाबूजी जो कुछ भी बनना चाहते थे वह इस परिवार के लिए बनना चाहते थे।सो उन्होंने अपने नुकसान की जरा भी परवाह नहीं की।
हां मां के ताने अब और तीखे हो गए थे।
-----------------
3.
'प्रेम,सचाई,परोपकार और दूसरों की मदद करना ईश्वरीय कार्य है जब आप इनको करते हैं तो आपके पास ईश्वरीय शक्तियां आ जाती हैं।'-14.5.1989
छोटे दादाजी दुकान का एक तिहाई हिस्सा लेकर अलग हो गए थे।दोनों ताऊजी अब भी दुकान पर बैठते थे।अक्सर शाम को जब परिवार इकट्ठा होता तो छोटे दादाजी और दोनों ताऊजी व्यापार में अपनी सफलताओं का किस्से सुनाते।और उसमें बाबूजी का नाम नहीं होता था।
बाबूजी अब प्रदेश की राजधानी चले आये।वहां बैंकिंग और बिजनेस के अपने नॉलेज से मित्रों और रिश्तेदारों की मदद करने लगे।ताऊजी के बच्चे और मंझली और छुटकी बुआ के साथ दोनों चाचाजी भी हमारे साथ रहने लगे।होली दीपावली और छुट्टियों में पूरा परिवार साथ होता था।
एक छुट्टियों में दोनों ताऊजी ने दुकान में बाबूजी को हिस्सा देने से मना कर दिया।और दो लाख रुपये हिस्सा अलग करने के दादाजी के सामने रख दिये।
बाबूजी गुस्से में तमतमा गए।
वे घर से निकले और दो घण्टे बाद छः लाख रुपये दोनों ताऊजी के सामने रख दिये।
'अब भाव तो आपने कर दिए है तो ये लिजिये पैसे और आप दुकान छोड़ दीजिये।आपने मुझे पागल समझ रखा है जो आप मुझे दूध में मक्खी की तरह निकाल दोगे और मैं चुप रहूंगा।'बाबूजी बोले।
दोनों ताऊजी बगलें झांकने लगे।
फिर दादाजी ने बाबूजी को समझाया।
बाबूजी चाहते थे कि उनकी बचपन की यादों से जुड़ी उस दुकान में उनका भी हिस्सा बना रहे।पर दोनों ताऊजी तैयार नहीं हुए।
जब दादाजी ने हिस्से के बदले में और ज्यादा रुपयों की बात की  तो बाबूजी रो पड़े।
'पिताजी,मैं पैसों के लिए यह सब नहीं कर रहा हूँ।पर आप मुझे नहीं समझ पाओगे।'
फिर उन्होंने सिर्फ एक लाख रुपये लिए और अपना कीमती हिस्सा हमेशा के लिए छोड़ दिया।
अब बाबूजी हमेशा के लिए शहर आ गए।पर परिवार अब भी साथ था।अपने मन की कड़वाहट उन्होंने कभी बच्चों के सामने नहीं आने दी।
राजधानी में उन्होंने पचास हजार में एक प्लॉट खरीद और उस पर हाउस लोन लेकर एक तीन कमरे का मकान बनाया।बाबूजी की बिजनेस में बुध्दि बहुत तेज चलती थी।उनके संपर्क भी कई बड़े लोगों से थे।बस वे बिना शर्त और अपेक्षा के दूसरों के काम करते रहते थे।उसका फायदा भी मिला।उन्होंने कई लोगों को राजधानी में मकान,दुकान और रोजगार दिलवाए।
फिर एक दिन उनके घर पर पार्टी में शहर के डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट आये।बातों बातों में उन्होंने बाबूजी को नई आने वाली स्कीम में कॉमर्शियल प्लाट खरीदने की राय दी।
स्कीम राजधानी से थोड़ी दूर थी पर वहां से एक्सप्रेस वे निकलने की संभावना थी।
वहाँ उस समय कोई इन्वेस्टमेंट करने को तैयार नहीं था।पर डी एम की सलाह से बाबूजी ने वहाँ पचास हजार में कॉमर्शियल कॉर्नर प्लाट के लिए अप्लाई कर दिया।ज्यादा प्रचार नही होने से लॉटरी के लिए प्लाट से कम एप्लिकेशन लगी थी।सो बाबूजी को प्लाट अलॉट होगया।डी एम साहब ने यहां उनका थोड़ा फेवर किया और एक्सप्रेस वे के नजदीक वाला प्लॉट दिलवा दिया ।
फिर आर्थिक विकास ने अचानक प्रदेश और राजधानी दोनों के रूप को बदल दिया।बाबूजी का प्लॉट और मकान अचानक प्रदेश के सबसे पाश इलाके में शामिल हो गए।
बाबूजी ने उस प्लॉट को कॉमर्शियल कॉम्प्लेक्स में बदल दिया ।मुख्य दुकाने खुद के बिजनेस के लिए रखी ।आधी किराए पर उठा दी और बाकी बेचकर लोन चुका दिया।
ईश्वरीय कृपा बाबूजी के साथ थी ।
-------------   
4. 
'परिवार अपने नकारा और गैरजिम्मेदार सदस्यों की अकर्मण्यता से प्रभावित नहीं होते हैं,अगर सक्षम सदस्य अपनी जिम्मेदारियों से पीछे हट जाए तो अवश्य टूट जाते हैं।'-17.06.1991
छोटे दादाजी वाले दोनों चाचा दारू और जुए के नशे में पड़ गए थे।सारे व्यवसाय की जिम्मेदारी छोटे दादाजी जो अब पैंसठ वर्ष के हो चुके थे सम्हाल रहे थे।तीनो बुआओं की शादी करने के लिए बाबूजी ने प्रदेश छान मारा।तीनो के रिश्ते एक से बढ़कर एक खान दान में किये।धूम धाम से शादियां की और सारा खर्च बाबूजी ने उठाया।
दोनों भाइयों के आये दिन झगड़े करने और जेल में जाने की घटनाएं हुई।पर बाबूजी ने अपने सम्पर्को का इस्तेमाल करके उनकी जमनाते करवाई।
पर बाबूजी के इन प्रयासों से किसी को फर्क नही पड़ता था।उल्टे दोनों ताऊजी और छोटे दादाजी का परिवार भरपूर ईर्ष्या करने लगा।
गांव में पुश्तैनी जमीन में तो बाबूजी का हिस्सा दादाजी ने पहले ही बेच दिया था ।दोनों छोटे चाचाओं ने हवेली में बाबूजी के हिस्से पर भी कब्जा कर लिया ।
बाबूजी मन मसोस कर रह गए।उन्हें जबर्दस्ती उनके गांव से निकाला जा चुका था।
उस दिन बाबूजी बहुत उदास हुए थे।
"मैंने तो पहले ही कह दिया था।आप तो परिवार की भक्ति में डूबे हुए थे।"मां बोली।
"लक्ष्मी, इस समय मुझे तानों की नहीं सहारे की जरूरत है।" बाबूजी हताश से बोले।
"जब बड़े आदमी बन कर यश लूट रहे थे तो मुझे कभी सुना ही नहीं था।अब जब लुट गए तो सहारे में मुझे ढूंढ रहे हो।भुगतो अपने कर्मो को।"मां ने तमतमा कर कहा।
"फिर क्या फर्क है तुम लोगों में और उनमें?"बाबूजी भड़ककर बोले ।
"कोई फर्क नहीं है।मेरे बच्चों के भविष्य को चूल्हे में झोंककर मुझे उपदेश मत दो।आखिर संयुक्त परिवार संयुक परिवार करते रहे आज तक।क्या मिला हमें।तुस भर गहना भी नहीं बनाया।अब जब अपनो ने लूट लिया तो मुझसे उम्मीद मत रखो भरपाई की।"मां जैसे सारी भड़ास निकाल देना चाह रही हो।
बाबूजी का मन खिन्न हो चुका था।वे चुपचाप घर से बाहर निकल गए।
---------    ------
धीरेन मां के सम्पर्क में रहता था।वह मां की बातों से सहमत था।उसकी नजरों में भी बाबूजी का परिवार प्रेम एक भावुक मूर्खता थी।
बाबूजी ने दिनकर भैया को बिजनेस स्कूल में दाखिला दिलवाया।बहुत बड़ी रकम खर्च की थी।धीरेन को भी आई आई एम्स की बड़ी तैयारी करवा कर दाखिला दिलवाया।गाहे बगाहे बाबूजी अपने अनुभव को दोनों बच्चों को बांटते रहते थे।शायद ही कोई पेरेंट अपने बच्चों को जीवन मे इतना अच्छे से तैयार करता है जैसा कि दिनकर और धीरेन को उसके बाबूजी ने तैयार किया था।
उधर पूरा बाकी परिवार अब बाबूजी का पारिवारिक बॉयकॉट करने लगा था।समाज मे बाबूजी और मां को पैसे के घमंड  में चूर प्रचारित किया गया।
और माँ के ताने भी बाबूजी के लिए कभी कम नहीं हुए।
बाबूजी ने अब चुप रहना सीख लिया था।
-------------------
5.
"मन बालक है,भावों की पीड़ा को अब तक समझा कौन है?
जब चलना है जीवन के पथ पर तो सबसे सुंदर मौन है।"
29.11.98
दोनों छोटे चाचा एक दिन उनके घर आये।शाम को बाबूजी दुकानों को मंगल कर घर पहुंचे।
थोड़ी बहुत गांव की समाचारों को पूछने के बाद दोनों चाचा बिजनेस के लिए उधार मांगने के मूल मुद्दे पर आ गए।
बाबूजी जानते थे कि दोनों जुआरी कुछ नही कर सकते तो उन्होंने मना कर दिया।
"बड़े भाई साहब,लगता है पैसे कमा कर आप को ज्यादा घमण्ड हो गया है।और आप भूल रहे हैं कि ज्यादा कमाई पर इनकम टैक्स वालों की नजर होती है।"बड़े चाचा बोले।
"अच्छा, तो अब तुम मुझे धमकी देने जैसे काबिल तो हो ही गये हो।मैं तो नाहक ही चाचा के परिवार की फिक्र करता रहा इतने दिन।"बाबूजी ने तीखी आवाज में कहा।
"नही नही भाई साहब।मेरा दोस्त इनकम टैक्स में इंस्पेक्टर लगा है।वह कह रहा था कि आप के भाई साहब के इनकम टैक्स का सर्वे हो सकता है।तो हमने देखा कि कुछ ले देकर मामला निपटा दिया जाए।बात बढ़ाने से क्या फायदा।?"चाचा ने कहा।
अब तो बाबूजी का गुस्सा सातवें आसमान पर था।उसके भाई उसको ही ब्लैकमेल करने आये थे।
बाबूजी ने दोनों को बुरी तरह लपका कर घर से बाहर कर दिया।
फिर कुछ दिनों बाद इनकम टैक्स का छापा पड़ा।पर बाबूजी ने एक एक पाई का हिसाब तैयार कर रखा था।वक्त से बहुत आगे चलते थे बाबूजी।
पर कई दिन तक धँधा चौपट रहा।
इस घटना के बाद गांव में कुटम्ब में एक शादी में जाना हुआ।तो दोनों ताऊजी के परिवार और चाचा जी के परिवार ने जबरदस्त दुष्प्रचार कर रखा था।
"घमंडी का सिर नीचा होता है।''
"पाप के पैसों का यही अंजाम होता है।"
"हमारे हिस्से के पैसों को लूट कर गया था।भगवान करनी का फल तो देगा ही।"
जितने मुंह उतनी बातें।
इतना मन कड़वा हुआ कि शादी बीच मे छोड़कर बापस आना पड़ा।
--------------------------
6.
"पात्रता वहीं है जहां प्रेम है।जहाँ प्रेम है प्रभु वहीं है।"
-14.07.2003
बाबूजी का मन रिश्तों से उठ गया था।अब वह कर्तव्य के लिए ही व्यवसाय कर रहे थे। दिनकर और धीरेन वेल सेटल हो चुके थे।दोनों तीन तीन लिमिटेड कम्पनियों के मालिक थे।पर बाबूजी अपने पूजा पाठ के बाद सिर्फ दुकानों को संभालने चले जाते।
अपनी आय से उन्होंने दो स्कूल और एक कॉलेज खोल दिये थे।गरीब बच्चों को शिक्षा देने का मिशन बना लिया था।आने वाले दस बारह वर्षों में शहर और प्रदेश में उनका नाम हो गया था।कितने ही होनहारों ने उनकी सहायता से अपने भविष्य का निर्माण किया था।
बाबूजी के दिल मे तो सिर्फ निश्छल प्रेम था।उसको अपने लोग पहचान नही सके तो वह निर्मल झरने की तरह सारे संसार को तृप्त करने लगा था।
गांव में दोनों ताऊजी और चाचाजी ने उनको विलेन बना रखा था।बुआएँ भी कोसने में कम नहीं थी।पर अब बाबूजी न तो खुद के परिवार की और न ही भाइयों के परिवार की परवाह करते थे।
घर मे भी माँ के कड़वे बोलो से दोनों बच्चों में यह बात घर कर गयी थी कि बाबूजी ने उनके लिए कुछ भी नही किया।
धीरेन भी यही समझता था कि उसके बाबूजी को सम्मान की चाह है।और इसके लिये उन्होंने मां और बच्चों के हिस्से को मूर्खतापूर्ण तरीके से खो दिया।
समय के साथ बाबूजी का अधिकांश समय या तो पूजा पाठ में बीतता था या सामाजिक कार्यों में।बच्चों और माँ के साथ संवाद सीमित होता गया।
दिनकर और धीरेन  भी अपने कार्यो और परिवार में व्यस्त हो गए।मां भी बच्चों और पोते पोतियों के साथ खुश थी।
और बाबूजी?
वे अपनी अलग दुनिया मे अकेले थे।
--------------------
7.
"रफ कॉपी एक ऐसी नोट बुक होती हैं जिसका उपयोग हर विषय के लिए किया जाता है।और उसके प्रति तनिक भी कृतज्ञता नही दिखाई जाती है।रद्दी में बिकने वाली पहली सामग्री होती है रफ कॉपी!जीवन मे कुछ लोगों को सिर्फ रफ कॉपी की तरह उपयोग में लिया जाता है।उनके प्रति कोई कृतज्ञ नहीं होता है।"
-18.05.2017
बाबूजी की रफ कॉपी के अंतिम पन्ने पर यह पढ़कर धीरेन अपने आंसुओं को नहीं रोक पाया।
अपनी अंतिम सांस लेने से महीने भर पहले उन्होंने यह लिखा था।
उस दिन दिनकर भैया बिजनेस डील के चक्कर मे त्रिवेंद्रम गए हुए थे।और वह दिल्ली।
बाबूजी को हार्ट अटैक हुआ था।माँ अपनी मौसी की लड़की बहन के यहां थी।बाबूजी के शेड्यूल के बारे में तो कोई जानकारी ही नही रखते थे।
सब अपने आप मे मस्त थे।
घर मे पूजा पाठ में बाबूजी काफी देर से उठे ही नहीं।
धीरेन की पत्नी नम्रता ने सबसे पहले यह भांपा कि बाबूजी की पूजा में सांस बड़े अजीब तरह से उखड़ रही है।
उसने नौकर से मदद लेकर बाबूजी को बिस्तर पर लिटाया और डॉक्टर को बुलाया।
थोड़ी देर में बाबूजी को आई सी यू में भर्ती कर लिया।
शाम तक धीरेन भी हॉस्पिटल पहुंच गया।दिनकर भी अगली फ्लाइट जा इंतजार करने लगा।
बाबूजी की हालत बिगड़ने लगी।और थोड़ी देर में डॉक्टरों ने जवाब दे दिया।
धीरेन ने यह सूचना गांव में दोनों ताऊजी,बुआजी और चाचाजी को दी।पर सबने कोई न कोई मजबूरी बताई ।और कहा कि वे तो चौथे पर ही पहुंच पाएंगे।
ऐसे मौके पर दिनकर,धीरेन और उसके परिवार वाले बिल्कुल तैयार नही थे।कोई यह बताने वाला भी नही था कि ऐसे वक्त में क्या करना है।
मगर तभी अचानक हॉस्पिटल में लोगों का हुजूम उमड़ने लगा।जिसको भी खबर मिली वह भागता हुआ वहाँ पहुंचा।
कई बड़े बड़े अफसर,नेता,समाज सेवक पहुंच रहे थे।सोशल मीडिया पर प्रसिद्ध समाज सेवी पन्नालाल सहाय उर्फ बाबूजी के निधन की खबर आग की तरह फैल गयी।वे परिवार जिनके बच्चों की शिक्षा बाबूजी ने दिलवाई।वे डॉक्टर,प्रोफेसर, लेक्चरर,और अफसर जिन्होंने बाबूजी की मदद से अपने सपने पूरे किए।
टी वी और मीडिया में भी यह खबर प्रमुखता से आने लगी।
सरकार ने शहर की स्कूलों और दफ्तरों की छुट्टी घोषित कर दी।
अंतिम संस्कार के समय सैकड़ों लोगो की आँखों मे आँसू थे।ये वो लोग थे जिनसे उनका कोई पारिवारिक रिश्ता नहीं था सिर्फ इंसानियत और प्यार का रिश्ता था।
बाबूजी दुनिया मे सिर्फ प्यार की तलाश में जिंदगी बिता देने वाले एक निश्छल और सच्चे इंसान थे।
धीरेन ने रफ कॉपी को बन्द किया।और आंख बंद कर उस पर अपनी उंगलियों को फिराने लगा।उसको लगा कि बरसो बाद वह फिर बाबूजी की गोद मे बच्चा बनकर बैठा है और बाबूजी ने उसे अपने हाथों में समेट रखा है।
और धीरेन की नन्ही उंगलियां बाबूजी की हथेली को सहला रही थी।
प्रकाश सिंह।'

कोई टिप्पणी नहीं: