मंगलवार, 24 मार्च 2009

तेजा बा की कुर्सी

काफीदिनों से अपनी एम्प्लोय्बिलिटी अथवा रोजगार प्राप्त करने की क्षमता बढ़ाने की सोच रहा था।परन्तु रोजगार हमें पंचम वर्ण में शामिल जातियों की भांति अस्पृश्य मानते हुए हमारी छाया से भी सावधानी से दूरी बनाये हुए था.पिछले कई दिनों से हमारी बढ़ी हुई दाढी भी वह प्रभाव नहीं छोड़ रही थी की कोई हमें फोकट की चाय पिलादे.अस्तु,हमने उसे उखड वाने के लिए तेजा बा की सेवाए ली,कसबे में हमरे सिवाय केवल तेजा बा ही ऐसे व्यक्तित्व थे जो पैसे को हाथ का मैल समझते थे और इज्जत पर मर मिट सकते थे.हमारे पास पैसा तो था ही नहीं सो इज्जत के सिवाय भला किस पर मर मिटते.तेजा बा को जब अपने बहु बेटो ने रात दिन बेइज्जत करना जारी रखा तो वे अपनी एक मात्र जमा पूँजी इज्जत को लेकर फुटपाथ पर आगये .उनको अपनी परलोक गामी पत्नी के साथ दहेज़ में मिले काच से बेपनाह मोहब्बत थी.उस काच में हमें अपना चेहरा कभी आंशिक रूप से भी नजर नहीं आया परन्तु हमें पूरी सावधानी रखनी पड़ती थी की कम से का दाढी बनवाते वक्त हम उस काच की शान में कोई गुस्ताखी न बक दे वर्ना अपनी आधी बनवाई दाढी के साथ हफ्तों गुजारने पड़ सकते थे. अंतर्राष्ट्रीय मामलो से लेकर गुनिया धोबन के प्रेम प्रसंग तक हमारी विचारधारा अपने आप में स्कूल आफ थाट है,खुद के सिवाय ढाबे पर हाल में पदस्थापित छोटू वेटर और तेजा बा को इस पर पूरा यकीन था.तेजा बा की दूकान जो अपने भौतिक रूप में फुटपाथ पर रखी एक कुर्सी मात्र थी,परन्तु यह वह कुर्सी थी जो प्रशासन और नगरपालिका के अतिक्रमण हटाओ अभियान का केंद्र बिंदु होती थी. पिछले पचीस बरसो से न जाने कितनी इमारते प्रशासन के आगे अदृश्य होकर सरकारी जमीन पर खड़ी हो चुकी थी.और जब ऐसी इमारतो में हिस्सेदारी प्राप्त करने से वंचित लोकतंत्र के कुछ प्रहरी इस अन्याय के विरुद्ध अन्य आय प्राप्त करने के उद्देश्य से सरकार को हिलाने बदलने की धमकी देते तो चुस्त प्रशासन 'तुम्ही से शुरू तुम्ही पे जिंदगानी ख़तम करेंगे...'की तर्ज पर तेजा बा की कुर्सी से अतिक्रमण हटाने की शुरुआत कर देता.अगले दिन अखबार की सुर्खियों में तेजा बा होते,उन्हें भू माफिया,अतिक्रमी और हैबिचुल आफेंडर जैसे खिताबो से नवाजा जाता था.तेजा बा अगले दिन अपनी कुर्सी ठीक उसी जगह लगा देते थे.तेजा बा दिल से दाढी बनाते थे क्यों की उन्हें आँखों से कुछ ख़ास दिखाई नहीं देता था.अपने गुप्त कालीन उस्तरे से वे दाढी के बालो के लिए किसी युद्ध सा दृश्य उत्पन्न कर देते और चमड़ी की अगली परत को जिसम की सतह पे ला खडा करते.दाढी बनाते समय तेजा बा अपने रियासत कालीन जीवन और अपने हुनर जिसका महत्त्व समझने वाले अब इस दुनिया में नहीं रहे है, का ओज पूर्ण वर्णन करते थे.

मैं नौकरी लगने के करीब तीन वर्षो बाद अपने गृह जिले में पदस्थापन पा कर काफी खुश था.जिले के हाकिम ने अतिक्रमण हटाने के अभियान चलाने के निर्देश दिए थे.अल सुबह सारा लवाजमा बुलडोजरों के साथ तेजा बा की दुकान के आगे इकठा हो चुका था.तेजा बा आधी हजामत बनवाये एक शख्श को कुर्सी से उठा रहे थे जिसने अनजाने में तेजा बा की पत्नी की एक मात्र निशानी ,काच का अपमान कर दिया था.प्रशासन के लवाजमे को सामने देख तेजा बा ने खम्भे से बंधी कुर्सी की जंजीर खोल दी थी.मैं अपनी सरकारी गाडी से उतरा.सब कारिंदे मेरे इशारे का इन्तजार कर रहे थे कि अभियान आरम्भ किया जाए.मुझको तेजा बा की ओर बढ़ते देख दो कर्मचारी कुर्सी को उठाने लगे. मैंने उन्हें कुर्सी को नीचे रखने को कहा फिर नक्शे को उसी कुर्सी पर फैला दिया,और माप जोख कर बुलडोजर को हाल में बनी एक शानदार ईमारत की और बढ़ने का इशारा किया जो सरकारी जमीन पर खड़ी थी.थोडी देर बाद ईमारत की दीवारे जमीन पर आने लगी. और अब मेरे मोबाईल पर काल आरही थी, ' कालिंग....मंत्रीजी...!'

3 टिप्‍पणियां:

के सी ने कहा…

जीवन की दुरुहता और इन्सान के भीतर बचे रहे आदम गुणसूत्रों के जीवट की शानदार बानगी है आपकी ये कथा, मैंने पढ़ते समय कई बार अगली पंक्ति की कल्पना की कोशिश की किन्तु आपकी लेखनी ने हर बार छका दिया, बधाई.

sanjay vyas ने कहा…

मजेदार.हम तो कह रहे है कि तेजा बा तो अगले दिन फी अपनी कुर्सी लगा देते,खामखा मंत्री जी को क्यों परेशान किया?

sanjay vyas ने कहा…

'फी' को 'ही' पढ़े:)