अबसार भीगे थे,जुबाँ खामोश, थी मन में बेकरारी
किस इजबार से मुस्करा रहे थे किसी ने क्या ईशारा कर लिया
छोड़ के आये जात मजहब अजलाल औ दुनियादारी
तब डर न था बैठ बारूद पे हमने शरारा कर लिया
शानो पे सर रख ग़म और इब्तिदा सुनाते थे रात सारी
जब छोड़ गए, अब्तर-आशियाँ और क्या हाल हमने हमारा कर लिया
वो अश्क किसके थे जिनमें भीगी थी जिन्दगी सारी
उनकी नजरो ने 'पाखी', क्यूँकर किनारा कर लिया
शब्दार्थ-अबसार-आँखे,इजबार-विवशता,अजलाल-वैभव,शरारा-चिंगारी,अजबाले ग़म-दुखो का पहाड़,इब्तिदा-परेशानी,अब्तर-आशियाँ-अस्तव्यस्त घर,
6 टिप्पणियां:
मन को एक कागज पर उतारना
जैसे झील में नहा लेना
और फिर से तरोताजा हो जाना
मन की सारी बातें उसमें रल जाना
फिर उसे रोज रोज देखना
और उसमें से अपने को खोजना
यह सिलसिला चलता रहता है
वो अश्क किसके थे जिसमे भीगी थी जिन्दगी सारी
उनकी नजरो ने 'पाखी' क्यूँकर किनारा कर लिया
सुन्दर अभिव्यक्ति है......
दिल के जज्बात को शब्दों में अच्छी तरह से उतरा है
बहुत सुंदर लिखा है आपने ...
आज तो कमाल कर दिया आपने , अभी शाम की ड्यूटी कर के आया हूँ पहले ही नशा था आपने और बढा दिया . ख़ूबसूरत है !
सुंदर रचना. पाखी के क्या कहने! इस शीरीं कलम से और मधुरस के इंतज़ार में.
वो अश्क किसके थे जिनमें भीगी थी जिन्दगी सारी
उनकी नजरो ने 'पाखी', क्यूँकर किनारा कर लिया
Bahut khub.Badhai.
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