किनारे को गर किनारा चाहिए,
नहीं अब दरिया दुबारा चाहिए ,
ओ मेरी दामन की लहरों ,
किसे अब यहाँ ठिकाना चाहिए ,
दरिया और लहरें निकल जायेंगे ,
दोनों किनारे भी मिल जायेंगे ,
बचेगी फकत माटी इस राह पे ,
कहाँ अब किनारे भी बच पायेगे
(२)
दर्द दिल के करीब हो तो लफ्जों में सांस होती है,
ग़मों को जिन्दगी बना कर लिखी हर नज्म ख़ास होती है
सजदा कर जब रूह में उतर जाए गम-ऐ-जिन्दगी,
तब , तेरी दुआ औ इबादत खुदा के कुछ पास होती है
(3)
आहत मन जब बंट बंट जाता,
कोई हताशा कोई निराशा,जब चुभती थी गहरी गहरी,
ज्यूँ आसमान पे काली बदरी,।देखी मैंने चमक सुनहरी, तो मुस्कानों से बात बनी थी ...
3 टिप्पणियां:
दरिया और लहरें निकल जायेंगे ,
दोनों किनारे भी मिल जायेंगे ,
बचेगी फकत माटी इस राह पे ,
कहाँ अब किनारे भी बच पायेगे
waah lajawab
बहुत शानदार शब्द रचना.एक ऐसी अभिव्यक्ति जो दिल के पास महसूस होती है.हाँ,पर ग़ज़ल में अशआर और समा सकते थे.
वाह वाह क्या शब्द पिरोये हैं, जितना सुन्दर बिम्ब उतना ही प्रतिबिम्ब निखरा निखरा सा. दूसरी रचना कुछ ग़ज़ल सी लगी हालाँकि मुझे ग़ज़ल का अ आ भी नहीं मालूम, बहुत दिन लगाये नयी रचना के लिए आपने. बस जरा सरकारी कम और हमारे ज्यादा रहिये.
एक टिप्पणी भेजें