शुक्रवार, 17 जुलाई 2009

पीठ के जो जख्म थे सब राजदारों ने दिए

यह गजल नहीं है बस एक कविता है.मैने पूरी कोशिश की थी कि रदीफ़ और काफिये का ख्याल रखूँ पर कहन इतना बुरी तरह से टूट रहा था कि मुझे लगा इसे एक कविता ही रहने दिया जाए.सो जैसी भी है आप के सामने पेश है...

ये पता है तू लगा ले लाख बाजी जान की
मतलबी दुनिया बड़ी काबिल नहीं अहसान की


दुश्मनों नें फेंके खंजर वार सीने ने सहे
पीठ के जो जख्म थे सब राजदारों ने दिए


लब जुबां खामोश थे जब मौत ने शिकवे कहे
अनकही नाराजगी को आज ऐसे कह गए


हाथ में थे तीर खंजर ये अदावत थी नई
मजहबों ने मार डाला जानिसारी न रही


मुल्क पे जब जान दी सबने कहा बागी हुए
डगमगाया आज ईमां मरहबा कहने लगे


ये कर्ज आज चुका दे पाखी अपने खून से
कल कहाँ मौका बचेगा तू वतन पे जान दे

पाखी

26 टिप्‍पणियां:

रंजना ने कहा…

बहुत बहुत सुन्दर रचना....भावः और अभिव्यक्ति,दोनों ही लाजवाब !!बधाई..

ओम आर्य ने कहा…

क्या कहे जिन्दगी कुछ इस तरह की होती है आपनो से मिली होती है .......बहुत ही खुब

के सी ने कहा…

जो भी लिखा है बड़ा दिल से लिखा है, ऐसे ही लिखते रहिये.
इस बार बहुत दिन लग गए आपको यहाँ आते आते ?
बीच में जरूर संजय भाई ने बताया की सुबीर साहब के ब्लॉग पर आपके चर्चे हैं तो वहां भी एक बार गश्त कर आया था चलो अच्छा है आपने दीवारें नहीं खड़ी कर रखी है सीखने के विरुद्ध.

निर्मला कपिला ने कहा…

ये कर्ज आज चुका दे पाखी अपने खून से
कल कहाँ मौका बचेगा तू वतन पे जान दे
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति है बधाई

नीरज गोस्वामी ने कहा…

हाथ में थे तीर खंजर ये अदावत थी नई
मजहबों ने मार डाला जानिसारी न रही
वाह....बहुत अच्छे अर्श जी (पाखी जी....इस बार गलती नहीं करूँगा आपको पहचानने में) .आपकी रचना बहुत अच्छे भावः लिए हुए है. भावः साध लीजिये काफिये और रदीफ़ धीरे धीरे खुद ही साध जायेंगे.लिखते रहिये.
नीरज

shobhana ने कहा…

दुश्मनों नें फेंके खंजर वार सीने ने सहे
पीठ के जो जख्म थे सब राजदारों ने दिए
bhut khubsurat andaj .acha lga .
kbhi maine likha tha

अपनों के दर्द को तो सह जाते है लोग ,
पर दूसरो के सांत्वना देने के अंदाज को सह नही पाते लोग |
bhut bhut dhnywad .

अनिल कान्त ने कहा…

बहुत सुन्दर रचना है भाई....

मेरी कलम - मेरी अभिव्यक्ति

sanjay vyas ने कहा…

कहन टूटने का डर था आपको इसलिए अनुशासन में बंधे नहीं आप. आप खुद ही कह रहे है. अपने को पैसे वसूल होने से मतलब है जो हो गए हैं . बाकी चिंता आप करते रहे:)

mehek ने कहा…

लब जुबां खामोश थे जब मौत ने शिकवे कहे
अनकही नाराजगी को आज ऐसे कह गए


हाथ में थे तीर खंजर ये अदावत थी नई
मजहबों ने मार डाला जानिसारी न रही
waah bahut hi badhiya

Udan Tashtari ने कहा…

हाथ में थे तीर खंजर ये अदावत थी नई
मजहबों ने मार डाला जानिसारी न रही

--भाव बहुत उम्दा है..रदीफ काफिये का क्या है-लगे तो ठीक. न लगे तो भी ठीक.

Sudhir (सुधीर) ने कहा…

मुल्क पे जब जान दी सबने कहा बागी हुए
डगमगाया आज ईमां मरहबा कहने लगे....

बहुत अच्छी अभिव्यक्ति... साधू.

Alpana Verma ने कहा…

आप की रचना अच्छी लगी..पंक्तियाँ गहन भाव लिए हुए हैं..
'लब जुबां खामोश थे जब मौत ने शिकवे कहे
अनकही नाराजगी को आज ऐसे कह गए'

यह शेर ख़ास पसंद आया.

विवेक रस्तोगी ने कहा…

सुन्दर अतिसुन्दर !!!

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बहुत बढिया लिखा है आपने ..यूँ ही लिखते रहेँ
स स्नेह,
- लावण्या

Anil Pusadkar ने कहा…

लाजवाब!

Mumukshh Ki Rachanain ने कहा…

दुश्मनों नें फेंके खंजर वार सीने ने सहे
पीठ के जो जख्म थे सब राजदारों ने दिए

वाह! क्या बात कही और कितनी सहजता से कही.

बधाई

रही बात काफिये आदि के तो अतुकांत कविता और नव गीतों ने तो सब कुछ तहस- नहस कर ही रखा है और यह सिद्ध कर दिया की मूल चीज़ भावः है और उसे ही प्रकट होना चाहिए. गेयता तो गायक खुद ही ले आता है. गाने वाले गाने की सोंचे आप तो लिखते रहे बस.

चन्द्र मोहन गुप्त

वीनस केसरी ने कहा…

पाखी भाई,
आपकी पोस्ट कल ही पढी थी ब्लोगिंग के समय की कमी के चलते आज टिप्पडी कर रहा हूँ

कहन और बहर दो पूरक चीजे है जैसे नदी के दो तट, सुखनसाज़ की यही विशेषता होती है की वो बहर में भी रहता है और अपनी बात सुन्दर भाव के साथ कह देता है ......................

अजी ये तो हुई गजल की कहने की बात , अब सच्चाई सुनिए ऊपर जो कहा कहना बहुत आसान है करने लगो तो पसीने छूट जाते है :)
आज भी जब लिखने बैठता हूँ जो सोचना पढता है की सोच को पकडून जो सरपट भागती है या रुक्न की गिनती........

वीनस केसरी

"अर्श" ने कहा…

प्रिय भाई,
अब मैं आपको अर्श कहूँ के पाखी खुद ही दिग्भर्मित हूँ समझ नहीं आरहा है .... सोचता हूँ खुद नीरज जी से पूछ लूँ ...
शब्द संयोजन बहोत बेहतरीन है भाव भी गंभीर है .... मगर आपको छड़ी की परवाह तो करनी ही होगी ...
नीरज जी और वीनस ने सही कहे है मूल बात तो कहाँ ही है मगर जब आप अपने कहन को बह'र में सीमा में रखते है तो उसकी जो निखार आती है वो तो बस देखने सुनाने और सुनाने लायक होती है कहना आसान है मगर करना मुश्किल मगर इतना तो तय है के गुरु जी के आश्रम में आप जरुर कर्लोगे ... बहोत सारे लोग सिर्फ वाह वाह करेंगे आपको उसमे नहीं जाना है आप अपने आपको कसौटी पे रखें और फिर आगे बढ़ते रहे .... क्युनके हमें मूल जड़ तक जाना है ...
इस बात का ख़याल जरुर रखें ... हम नाम और गुरु भाई होने के नाते कह रहा हूँ मेरी बातों को अन्यथा ना लें....


अर्श

गौतम राजऋषि ने कहा…

लिखते रहिये मित्रवर...मुख्य बात है कि कलम चलती रहनी चाहिये...ये बहरो-वजन आ ही जायेगा...
कुछ मिस्रे तो लाजवाब बन पड़े हैं जैसे कि
"मतलबी दुनिया बड़ी काबिल नहीं अहसान की"
2122-2122-2122-212 के रुक्न पर इस काफ़िये-रदीफ़ के साथ एक ग़ज़ल कह डालिये।

"अनकही नाराजगी को आज ऐसे कह गए" ये बहुत ही प्यारा मिस्‍रा बना है..इसे यूं ही तन्हा न छोडें।

sandhyagupta ने कहा…

Aapka yah naya andaaj bahut pasand aaya.

Urmi ने कहा…

बहुत ही सुंदर भाव और अभिव्यक्ति के साथ लिखी हुई इस बेहतरीन रचना के लिए ढेर सारी बधाइयाँ!

Murari Pareek ने कहा…

एक एक पंक्ति लाजवाब !! राजदार हमेशां पीठ पे ही घाव देते है | शायद पीठ उनके लिए ही बनाई गई है !! वरना हमारी गर्दन चारों तरफ घुमंशील होती !!!

दिगम्बर नासवा ने कहा…

भाव हों तो रचना अच्छी हो ही जाती है.......... बहुत लाजवाब लिखा है आपकी रचना बहुत अच्छे भावः लिए हुए है...............

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

लिखने के लिये ज़रूरी चीज भाव आपके पास खूब हैं....!

बाकि हर व्यक्ति सीखते सीखते ही सीखता है।

बहर में न भी रहे तो भी जब कविता का नाम दिया है तो तुक का ध्यान दीजियेगा अब कम से कम ई की मात्रा यदि अंत में रखते तो और सुंदर होता।

आप शायद समझ सकते हैं कि सुझाव आपको क्लास के ही लोगो से मिल रहे हैं, क्योकि हम लोग वाह वाह कह कर आपकी प्रगति को रोकना नही चाहते। आप और लिखिये..! खूब लिखिये..! इंशा अल्लाह बीज बता रहा है कि पेड़ बड़ा निखर कर आयेगा...!

प्रकाश पाखी ने कहा…

रंजना जी,ओम जी,किशोर जी,निर्मला जी,शोभना जी,अनिल जी,संजय जी,महक जी,सुधीर जी,अल्पनाजी,विवेक जी,अनिल पुसदकर जी,संध्या जी, उर्मी जीऔर मुरारी जी...आप सभी का शुक्रिया!आप सब ने मेरे कविता के भाव जैसे भी थे उनको सराह कर मेरा मनो बल बढाया....आज तक की मेरी लिखी किसी भी पोस्ट पर सबसे अधिक विचार इस पोस्ट पर मिले....कमसे कम मुझे यह अहसास तो हुआ की मेरी रचना की सार्थकता तो बनी है...अब मेरे गुरु भाई और बहन की मार्गदर्शन से भरपूर विचार मेरे लिए अमूल्य है..
नीरज जी को मैं गुरु भाई के साथ छोटे गुरूजी कहूं तो भी ठीक होगा...मैंने भाव को इसलिए प्राथमिकता दी क्यों की बहर टूट रही थी...पर नया हूँ तो धीरे धीरे सुधरने की उम्मीद रखता हूँ..समीर सा तो मनो बल बढाते ही है....वीनस भाई आपने सच कहा कि लिखने में पसीने छूटते है...बहर और भाव सम्हाल लिए तो रदीफ़ और काफिये का चक्कर पड़ गया..अर्श भाई छड़ी कि परवाह करने की बात से सहमत हूँ....और आपकी सलाह बहुत अच्छी लगी...और अन्यथा न लेने की बात...अर्श भाई आगे हमेशा मुझे इसी तरह बताते रहे तो बड़ी मेहरबानी होगी...और आगे अगर आपने अन्यथा न लेने की बात कही तो शायद मुझे अच्छा नहीं लगेगा.अरे भाई..आप सीनियर है...और कुछ नहीं तो रेगिंग के बहाने दो चार छड़ी आप भी धर देना..नहीं तो आपका यह भाई कुछ सीख न पाया तो सारा दोष आपके मत्थे आएगा..
गौतम भाई...आपकी सलाह मुझे बहुत अच्छी लगी मैं निश्चित ही आपके पसंद किये दोनों मिसरों पर गजल लिखने का प्रयास करूंगा...दिगंबर जी बहुत शुक्रिया हौसला आफजाई का...और कंचन जी ...सच कहूं तो आप सब गुरु भाई बहनों ने इस कविता का जो समद्र मंथन किया है उसके शुभ परिणाम आयेंगे इसका मुझे यकीन है...
मैं वैसे ही आपको बहुत ध्यान से पढता हूँ...आपकी बाते आत्मसात तो कर ही ली थी पर टिप्पणी के माध्यम से शुक्रिया अदा करना चाहता हूँ...आशा करता हूँ आपका स्नेह बना रहेगा..
और आखिर में आदरणीया लावण्या दीदी का बहुत बहुत आभार..
प्रकाश पाखी

kshama ने कहा…

ऐसे ज़ख्म हमने भी खाए हैं ..! दर्द समझ में आता है !
स्वतंत्रता दिवस पे शुभ कामनाएँ दे रही हूँ...एक बेहतर आज़ादी की लिए हम सभी मिलजुल के कोशिश करें..माता के ताज को सुरक्षित रखें!