सोमवार, 26 अक्तूबर 2009

भ्रष्ट्र स्थितप्रज्ञ (भक्तिवेदांत)


हे अघोषित आय के परम भक्त!देहधारी जीव भले ही अपने भ्रष्ट आचरण से परम सुख प्राप्त कर ले पर नौ सौ चूहों को खाते ही हज पर चलने को तत्पर मार्जार की भांति दया,भलाई, सेवा,ईमानदारी की इच्छा फडफडाने लगती है.लेकिन परमावस्था में नोटों के बण्डल नजर आते ही वह तत्काल ऐसे कार्यों को बंद कर समाधि में स्थित हो जाता है.
हे अर्जुन!यह पब्लिक इतनी प्रबल तथा वेगवान है कि कई बार बलपूर्वक काला मुंह कर जूतों की माला पहना गधे पर उल्टा बैठाकर बलपूर्वक लतियाने लगती तो इससे अच्छे से अच्छे विवेकवान बुद्धिमान भ्रष्ट पुरुष का मन भी ईमानदारी की तरफ डिगने लगता है.जो विवेकी पुरुष ऐसी स्थिति में भी कष्ट सहन कर धैर्य बनाए रखता है,और ऐसी स्थिति में भी संयम रखते हुए इसे साजिश बताकर स्वयम को ईमानदारी का मसीहा बताकर इन्द्रिय संयम कर अपनी चेतना मुझ अविनाशी भ्रष्टाचार में स्थित कर देता है वह स्थिर बुद्धि कहलाता है.
कर्तव्य नैतिकता ईमानदारी आदि शब्दों का चिंतन करने से मनुष्य की उनमे आसक्ति उत्पन्न हो जाती है.जिसके कारण वह ऊपर से ईमानदार दिखने की कोशिश करने लगता है.इससे लोगों को गलतफमी होने लगती है और वे उससे कटकर बाबुओं और सिफारिश से काम निकलवाने लगते है..लोगों के काम बिना पैसे निकलते देखने पे ऐसे काम पर क्रोध उत्पन्न होता है.ऐसे में क्रोध से पूर्ण मोह उत्पन्न होता है इससे स्मृति नाश और उससे बुद्धि का सर्वथा नाश होने से वह मजबूरी में ईमानदारी के भवकूप में गिर जाता है.
किन्तु भ्रष्ट आचरण को अपनी सम्पूर्ण आत्मा में उजागर कर हर जगह महा भ्रष्ट के रूप में प्रसिद्द हो जाने पर दुनिया उसे छ्न्टेल मानकर अपने आपको समझा देती है कि यहाँ जेब ढीली किये बिना पार नहीं पड़ने वाली है तो वह उस स्थिरमति मुनि को वंदना करते हुए उसके चरणों में प्रसाद कि भांति रिश्वत समर्पित करने लगती है.
समस्त ईमानदारी नैतिकता से मुक्त और अपने सदाचरण को हमेशा के लिए दफन करने में समर्थ व्यक्ति ही भ्रष्टाचार के महादेवता की पूर्ण कृपा प्राप्त कर सकता है. इस प्रकार भ्रष्टभावनामृत लीन व्यक्ति के लिए इस संसार में गरीबी,लाचारी और लुक्खागिरी रुपी तीनो ताप नष्ट हो जाते है और ऐसी दुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है.
जिसप्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचंड वायु दूर बहा ले जाती है इसी प्रकार ईमानदारी,नैतिकता और और कर्तव्यनिष्ठा नौकरी के दुरूपयोग से मिलने वाली गाडी,नौकर, पैसे, काईंड, प्रभाव,आदि सभी सुविधाओं को बल पूर्वक दूर ले जाती है.
ऐसे मूढ़ पुरुषों को दफ्तर में न तो अच्छा कमरा मलता है,न अच्छी टेबल और नहीं ढंग का काम मिल पाता है.
हे महाबाहों!जिस पुरुष की इन्द्रियाँ ईमानदारी आदि विषयों से निवृत हो कर उसके वश में है और जो निर्बाध भ्रष्ट है.उसकी बुद्धि निसंदेह स्थिर है और वह शातिर है. जिसने स्वप्न में भी ईमानदारी नैतिकता आदि गुणों का और उससे उत्पन्न इच्छाओं का पूर्ण दमन किया है,जिसने सगे बाप की सिफारिश न मानते हुए पैसो को महत्व दिया है,जो भले बनाने की इच्छाओं से रहित,और जिसने अपनी सारी रिश्तेदारी की ममता त्याग कर उनसे पैसे मठोठ लिए है.और जो इज्जत,मर्यादा आदि के मिथ्या अहंकार से दूर है और जो केवल ऊपरी आय को भजता है, वही वास्तविक शांति को प्राप्त होता है. भ्रष्टाचार का पथ ईश्वरीय जीवन पथ है जिसे प्राप्त करके मनुष्य मोहित नहीं होता है नहीं उसको कोई मामू बना सकता है.जीवन के अंतिम समय में भी यमदूतों से रिश्वत मांगने वाला इस तरह से स्थिर ही तो वह भ्रष्टस्थितप्रज्ञ कहलाता है.

(इस प्रकार श्रीमद प्रतियों गीता का ज्ञान कर्म भक्ति भ्रष्ट योग नामक दूसरा अध्याय सम्पूर्ण हुआ.)

10 टिप्‍पणियां:

Udan Tashtari ने कहा…

धन्य भये ऐसा गीता ज्ञान पाकर, महाप्रभु!! पधारते रहें.

के सी ने कहा…

अपने आप को धन्य घोषित कर चुके समीर लाल जी के पीछे मैं भी करबद्ध शीश झुकाए खडा हुआ हूँ, हे पार्थसारथी, इसी तरह अपने ओजस्वी और निष्काम वचनों से हमारा मार्ग प्रशस्त करते रहिये.

दर्पण साह ने कहा…

:)

Pakhi ji behterin thi bus...

" हे अर्जुन!यह पब्लिक इतनी प्रबल तथा वेगवान है कि कई बार बलपूर्वक काला मुंह कर जूतों की माला पहना गधे पर उल्टा बैठाकर बलपूर्वक लतियाने लगती तो इससे अच्छे से अच्छे विवेकवान बुद्धिमान भ्रष्ट पुरुष का मन भी ईमानदारी की तरफ डिगने लगता है"

digne to intentionally bold kiya hai....
aakir digna hi to hua na....
...beimani ko tajna !!
hahaha !! :)

"इस प्रकार भ्रष्टभावनामृत लीन व्यक्ति के लिए इस संसार में गरीबी,लाचारी और लुक्खागिरी रुपी तीनो ताप नष्ट हो जाते है और ऐसी दुष्ट चेतना होने पर उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिर हो जाती है. जिसप्रकार पानी में तैरती नाव को प्रचंड वायु दूर बहा ले जाती है इसी प्रकार ईमानदारी,नैतिकता और और कर्तव्यनिष्ठा नौकरी के दुरूपयोग से मिलने वाली गाडी,नौकर, पैसे, काईंड, प्रभाव,आदि सभी सुविधाओं को बल पूर्वक दूर ले जाती है. "

Dhany dhanya kalyugi Gita !!

कंचन सिंह चौहान ने कहा…

:) :) :)

aap ka ye andaz nirala hai

डॉ .अनुराग ने कहा…

इतना ज्ञान ! सारे लक्षण किसी गुरु बंनने के है भाई ...फोरेन में चांस ज्यादा है

sanjay vyas ने कहा…

अथ द्वितीयो़ध्याय.
महत्वपूर्ण बात.अद्भुत लेखन-कारी के ज़रिये.
चलाए रखें.

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

Itni gyan bhari.... post ke liye aapka aabhaari hoon.....

अपूर्व ने कहा…

भई पाखी साहब..सच कहूँ तो कल से आपका यह लेख मेरे स्क्रीन पर खुला पड़ा है..और कभी किसी पोस्ट पर कमेंट करने मे इतना समय नही लेना पड़ा जितना आप के लिये (२४ घंटे से भी ज्यादा)..बस यही कहँगा कि इस रचना का स्तर हम जैसे मूर्ख ब्लॉगरों की छुद्र-बुद्धि से बहुत ऊपर है..और निहित व्यंग्य इस हिंदी ब्लॉग जगत की अमूल्य धरोहर है...कृपया इस भ्रष्ट अर्जुन को भी अपना ही शिष्य समझें..और यह भ्रष्ट-ज्ञान-गीता ऐसे ही प्रवाहित होने दें...
और यह भी देखिये कि आप्से प्रेरणा आप कर मैने भी द्वितीय अध्याय के इस श्लोक को लपेटने की हिमाकत कर दी

इंक्वायरीष्वनुद्विग्नमनाः आर टी आयीषु विगतस्पृहः।
वीतरागन्यायधर्म: दुश्चरित्र्योर्भ्रष्टोर्युच्यते ॥

;-)

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

अद्भुत लेखन.....!!

शुक्रिया जो आपने मेरी नज्में पढीं ....बस ब्लॉग बंद कर जा ही रही थी कि आपकी टिप्पणी देखी.....!!

इतना ज्ञान ....???

निशब्द हूँ......!!

Neha Dev ने कहा…

गहरी बातें, बहुत खूबसूरत लिखते हो.