रविवार, 21 फ़रवरी 2010

...कुछ और दिखाता चेहरा


मेरे अंतर्मन को बाहर लाता चेहरा
हूँ मैं कुछ और तो कुछ और दिखाता चेहरा

मन की मर्जी, तन बहका, कैसे काली रात में
दिन में फिर मिल जाए तो क्यूँ घबराता चेहरा

क्या अदा, क्या जलवा, जादू सा उसकी बातों में
यादों में गुम दरपन से यूँ शरमाता चेहरा

अब न तुम आते हो ना याद तुम्हारी आती है
आके यूँ सपनो में ये रोज सताता चेहरा

कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा

प्रकाश पाखी

12 टिप्‍पणियां:

कविता रावत ने कहा…

कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा
Sundar prastuti...
Bahut shubhkamnayne

कडुवासच ने कहा…

मन की मर्जी, तन बहका, कैसे काली रात में
दिन में फिर मिल जाए तो क्यूँ घबराता चेहरा
.... बहुत सुन्दर !!

Yashwant Mehta "Yash" ने कहा…

चेहरे के रंग पर रच दी कविता
पसंद आयी हमें बहुत

Smart Indian ने कहा…

बहुत खूब!

रंजू भाटिया ने कहा…

बहुत बढ़िया सुन्दर कहा आपने शुक्रिया

श्रद्धा जैन ने कहा…

कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा

bahut khoobsurat sher

Urmi ने कहा…

बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन और उम्दा रचना के लिए बधाई!

स्वप्न मञ्जूषा ने कहा…

मेरे अंतर्मन को बाहर लाता चेहरा
हूँ मैं कुछ और तो कुछ और दिखाता चेहरा

saare hi sher lajwaab hain..behadd khoobsurat...

डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत शे' र ....



आभार....

हरकीरत ' हीर' ने कहा…

कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा

bahut khoob.....!!

sanjay vyas ने कहा…

विषय वस्तु में इतनी नवीनता न होते हुए भी एक मौलिक पढ़ने का अहसास आपकी खूबी है.

एक सहज पाठ में कहीं पर लय भंग होती लग रही है,इसके नाप तौल को आप बेहतर जानते हैं,देखें कहीं है क्या ऐसा? दूसरे में मुझे ऐसा लगा.खैर इससे रचना की सादगी भरा सौंदर्य प्रभावित नहीं होता.

ये रचना मैं लगी तब से देख रहा हूँ पर न जाने क्यों मेरी ब्लॉग लिस्ट में ये अपडेट नहीं हुई है.

Sulabh Jaiswal "सुलभ" ने कहा…

बढ़िया है...
और वंदना जी के ब्लॉग पर आपका होली विवरण भी सुना...
बहुत अच्छा लगा
आपको सपरिवार होली की बधाई.