मेरे अंतर्मन को बाहर लाता चेहरा
हूँ मैं कुछ और तो कुछ और दिखाता चेहरा
मन की मर्जी, तन बहका, कैसे काली रात में
दिन में फिर मिल जाए तो क्यूँ घबराता चेहरा
क्या अदा, क्या जलवा, जादू सा उसकी बातों में
यादों में गुम दरपन से यूँ शरमाता चेहरा
अब न तुम आते हो ना याद तुम्हारी आती है
आके यूँ सपनो में ये रोज सताता चेहरा
कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा
प्रकाश पाखी
12 टिप्पणियां:
कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा
Sundar prastuti...
Bahut shubhkamnayne
मन की मर्जी, तन बहका, कैसे काली रात में
दिन में फिर मिल जाए तो क्यूँ घबराता चेहरा
.... बहुत सुन्दर !!
चेहरे के रंग पर रच दी कविता
पसंद आयी हमें बहुत
बहुत खूब!
बहुत बढ़िया सुन्दर कहा आपने शुक्रिया
कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा
bahut khoobsurat sher
बहुत ख़ूबसूरत रचना लिखा है आपने! इस बेहतरीन और उम्दा रचना के लिए बधाई!
मेरे अंतर्मन को बाहर लाता चेहरा
हूँ मैं कुछ और तो कुछ और दिखाता चेहरा
saare hi sher lajwaab hain..behadd khoobsurat...
बहुत ही खूबसूरत शे' र ....
आभार....
कब से पाखी रब दिखता है माँ को इसमें कैसे
कैसे ये रोज मुखौटा है बन जाता चेहरा
bahut khoob.....!!
विषय वस्तु में इतनी नवीनता न होते हुए भी एक मौलिक पढ़ने का अहसास आपकी खूबी है.
एक सहज पाठ में कहीं पर लय भंग होती लग रही है,इसके नाप तौल को आप बेहतर जानते हैं,देखें कहीं है क्या ऐसा? दूसरे में मुझे ऐसा लगा.खैर इससे रचना की सादगी भरा सौंदर्य प्रभावित नहीं होता.
ये रचना मैं लगी तब से देख रहा हूँ पर न जाने क्यों मेरी ब्लॉग लिस्ट में ये अपडेट नहीं हुई है.
बढ़िया है...
और वंदना जी के ब्लॉग पर आपका होली विवरण भी सुना...
बहुत अच्छा लगा
आपको सपरिवार होली की बधाई.
एक टिप्पणी भेजें