1
मेरा चांद मुझमें निहाँ हो गया
कि नीचा बहुत आसमाँ हो गया
न इकरार ही कर सके ना मना
नजर से इश्क खुद बयाँ हो गया
गुलों तितलियों से कभी खुश हुआ
बटुक वो सखी बागबाँ हो गया
जो पूछा कि हमसे मुहब्बत है क्या
निगाहें झुकी सब बयाँ हो गया
2
वो जब से मेरा सायबाँ हो गया
मैं सब गलतियों की दुकाँ हो गया
मुझे दुश्मनों से गिला है नहीं
जो अपना बना,बे इमाँ हो गया
मिले इश्क में जख्म इस कदर
सिले होठ मैं बेजुबाँ हो गया
गिला गैर की चोट का क्या करूं
दगाबाज जब राजदां हो गया
लिए फूल पत्थर के ताजिर मिले
चमन आज फिर बदगुमाँ हो गया
सफीनों ने साहिल से क्या कह दिया
समंदर डरा बेजुबाँ हो गया
(सफीना -- कश्ती)
प्रकाश पाखी
(बटुक-बालक,ताजिर-व्यापारी,बदगुमाँ-आशंकित,निहाँ होना -समाजाना,छुप जाना,)
गौतम भाई और वीनस भाई के सुझावों से गजल की कुछ मूलभूत कमियाँ दूर कर इसे पुन:प्रस्तुत कर रहा हूँ.
17 टिप्पणियां:
मेरा चाँद आगोश में झुक गया
कि नीचा बहुत आसमाँ हो गया
आपके सभी शेर लाजवाब लगे हैं...बहुत दिल से लिखा है आपने...
आपका आभार...
बहुत उम्दा ग़ज़ल के लिए बधाई.
मैं अक्सर शिकायत करता हूँ कि बाड़मेर के कवि शाईर कभी अच्छे पाठक नहीं हुए. वे हमेशा तुकबंदी में लगे रहे, अब आपके इस सफ़र को देखता हूँ तो मन प्रसन्न हो जाता है. ग़ज़ल के सब शेर जानदार हैं. मुझे तो रदीफ़, काफ़िया, शेर, हुस्ने शेर आदि का ज्ञान नहीं है वरना शायद और बेहतर तरीके से समझ सकता. खैर गौतम जी आते ही होंगे.
इस शेर ने बहुत प्रभावित किया है
मेरा चाँद आगोश में झुक गया
कि नीचा बहुत आसमाँ हो गया
फिर से बधाई
अच्छी और शानदार रचना ,बधाई
जोरदार रचना के लिए
बधाई ...........
'लिए फूल पत्थर के ताजिर मिले
चमन आज फिर बदगुमाँ हो गया'
बहुत उम्दा!
बहुत खूब कही है ग़ज़ल!
क्या बात है. लग रहा है कि हम किसी मुशायरे में शिरकत कर रहे हैं. खूबसूरत नाज़ुक सी गज़ल.
अच्छी रचना. बधाई!
मुझे दुश्मनों से गिला है नहीं
जो अपना बना,बे इमाँ हो गया
-हर शेर पूरा है, बहुत खूब!!
लिए फूल पत्थर के ताजिर मिले
चमन आज फिर बदगुमाँ हो गया
ओह! ये कैसी तस्वीर है अपने शहर की.
Prakash ji Gazal Achchi Lagi.
आपको और आपके परिवार को वसंत पंचमी और सरस्वती पूजन की हार्दिक शुभकामनायें!
बहुत ही सुन्दर रचना लिखा है आपने!
बहुत जबर्दस्त रचना के साथ आपने सन्नाटा तोड़ा..
मेरा चाँद आगोश में झुक गया
कि नीचा बहुत आसमाँ हो गया
आसमाँ को झुका देने की इस मुहब्बत भरी चाँद की परस्तिश पर कुर्बान हो जाने का जी करता है..
और इन पंक्तियों मे यथार्थ से समझौते की कोशिश
मुझे दुश्मनों से गिला है नहीं
जो अपना बना,बे इमाँ हो गया
गालिब साहब की याद दिलाती है
दोबारा आना ही होगा..
bahut hi nikhri hui gjl. badhai
प्रकाश साहब
निसंदेह रचना उत्तम है
बहुत बहुत आभार ..............
लिए फूल पत्थर के ताजिर मिले
चमन आज फिर बदगुमाँ हो गया
...वाह क्या शेर है.
वाह बहुत ही सुन्दर रचना ! आपको और आपके परिवार को गणतंत्र दिवस की हार्दिक शुभकामनायें!
कुछ व्यस्तता थी...तो इधर का रुख कर न पाया। आपका मेल भी देखा है। कुछ मिस्रे वाकई लाजवाब बुने हैं आपने। शेष मेल कर रहा हूं अलग से।
मुझे दुश्मनों से गिला है नहीं
जो अपना बना,बे इमाँ हो गया
'लिए फूल पत्थर के ताजिर मिले
चमन आज फिर बदगुमाँ हो गया'
वाह प्रकाशजी पता नही कैसे इस ब्लाग को भूल गयी थी । अब इसे लिस्ट मे डालती हूँ यहां तो बहुत बडा खजाना है
लाजवाब गज़ल के लिये बधाई
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